*ओ३म्*
*महाभारत से-2*
कुरु वंश महाराज कुरु के नाम से जाना जाता है। महाभारत में भी ऐसा ही वर्णन है परंतु इनसे पूर्व भी उनके वंशजों का उल्लेख है जिन्हें महाराज युधिष्ठिर के पूर्वजों में सम्मानित स्थान प्राप्त है। अतः महाभारत से पूर्व कुरुवंश के पूर्वजों के बारे में जानना भी आवश्यक हो जाता है।
महाराज ययाति पुरुरवा के प्रपौत्र, राजा आयु: के पौत्र तथा प्रसिद्ध राजा नहुष के पुत्र थे। ययाति ने आर्य संस्कृति अनुसार ऋषि आश्रमों में पूर्ण रीति से शिक्षा और शस्त्र ज्ञान प्राप्त किया। राजा वृषपर्वा की विदुषी पुत्री शर्मिष्ठा से ययाति का विवाह हुआ। शर्मिष्ठा से उन्हें द्रुह, अनु और पुरु नाम तीन पुत्र हुए। सत्य ही ययाति का धर्म था। नित्य अग्निहोत्र, अतिथि पूजन और आदिकर्म बड़ी ही सावधानी, श्रद्धा और कर्तव्य बुद्धि से करना उनकी दिनचर्या में शामिल था।
अपने राज्य की प्रजा को इन कर्मों को करने के लिए प्रेरित भी करते थे। सबसे छोटे पुत्र पुरु में प्रजा पालन की योग्यता देख ऋषियों और प्रजा की सहमति से आयु में सबसे छोटा होने पर भी राज्याभिषेक किया। कुछ समय बाद वानप्रस्थाश्रम की दीक्षा ले वन में तपस्या के लिए चले गए।
राजा पुरु ने पिता की तरह ही धर्मानुसार प्रजा पालन किया। पुरु के भी तीन पुत्र हुए जिनके नाम और ख्याति का कोई उल्लेख नहीं मिलता। पुरु के बाद पुरु वंश में महाबली दुष्यंत का उल्लेख मिलता है। दुष्यंत महाबली, धनुर्धारी, व्रज समान देहधारी, गदा युद्ध और धनूर्युद्ध आदि में प्रवीण थे। दुष्यंत के राज्य में प्रजामत की बड़ी मान्यता थी। इस शासन में चोरों-लुटेरों का भय बिल्कुल ही नहीं था ना कोई भूखा रहता था ना कोई रोगों और व्याधि से भयभीत।
आखेट राजाओं की वीरता के प्रतीक माने जाते रहे हैं। महाराज मनु ने निरीह पशुओं के वध को राजाओं का व्यसन बताया परंतु प्रजा कल्याण के लिए हिंसक पशुओं और कृषि आदि को हानि पहुँचाने वाले पशुओं के वध को उचित कहा है। महाराजा दुष्यंत भी वन विहार के लिए निकले लेकिन राज्य चिन्ह हटा कर अपने कुछ विशिष्ट मंत्रियों और चुनिंदा योद्धाओं के साथ।
विहार करते-करते उन्हें एक स्थान से यज्ञ धूम्र उठता दिखाई पड़ा। आसपास से भिन्न-भिन्न पुष्पों की सुगंध की अनुभूति हुई, अनेक पक्षियों के स्वर सुनाई देने लगे तो दुष्यंत उसी और बढ़ चलें। सामने तपोनिष्ठ ऋषि कण्व का आश्रम था, अपने साथियों को छोड़ दुष्यंत ने आश्रम में प्रवेश किया। वहाँ किसी को ना पाकर दुष्यंत ने पुकार की,
"कोई है यहाँ?"
दुष्यंत की आवाज सुन लक्ष्मी स्वरूपा तापसी वेश में अति सुंदर ब्रह्मचारिणी बाहर आई। उसे शायद आभास हो गया था कि यह युवक कोई राज पुरुष है। उसने कहा,
"आइए महाराज! आपका स्वागत है, बैठिए।"
कन्या ने उनको आसन दिया, स्वागत सत्कार कर बोली,
"श्रीमन्! कैसे पधारे आप?"
ऋषि कण्व जी के दर्शन की अभिलाषा से आया हू शोभने ऋषि दिखाई नहीं दे रहे? दुष्यंत ने उत्तर देते हुए पूछा।
तापसी कन्या ने कहा,
"आर्य कुमार! मेरे पिता तो आश्रम के हितार्थ बाहर गए हैं। आप कुछ काल यहाँ आश्रम में ही विराजिए, उनके आने पर मिल कर जाइयेगा।"
दुष्यंत ने सुना था कि ऋषि कण्व तो बाल ब्रह्मचारी हैं फिर यह कन्या ऋषि कण्व को पिता क्यों बता रही है?
"तुम कौन हो दिव्या? किसकी पुत्री हो?" दुष्यंत ने पूछ ही लिया।
"मैं भगवन् कण्व की पुत्री हूँ, शकुंतला नाम है मेरा।" कन्या ने कहा। पौराणिक कथाओं में शकुंतला को ऋषि विश्वामित्र और मेनका की पुत्री बताया गया है परन्तु यह प्रसंग यहाँ महत्वपूर्ण नहीं है।
दुष्यंत अभी युवा ही थे पर अनुभवी थे, कन्या के हाव-भाव और वार्ता से तुरंत जान गए कि अवश्य इस कन्या में किसी क्षत्रिय का अंश है। राजा को आश्रम में आए विलम्ब हुआ देख उनका प्रमुख अमात्य आश्रम में दुष्यंत के पास पहुँच गया और खड़ा हो शकुंतला और दुष्यंत का वार्तालाप सुनने लगा।
संस्कृत के महाकवि कालिदास ने 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' नाम से संस्कृत भाषा में दुष्यंत और शकुंतला पर एक बहुत सुंदर नाटक लिखा। जिसे संभवत: विश्व का पहला नाटक माना जाता गया।
इसमें महाकवि ने शकुंतला और दुष्यंत के बीच हुए संवाद का बहुत सुंदर शब्दों में वर्णन किया है। मूल भाषा में लिखे जाने के बाद सबसे पहले इसका जर्मन भाषा और फिर अनेक यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। एक समय विदेशों में इसके बहुत मंचन हुआ करते थे।
बहुत बढ़िया जानकारी दी
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